वही दिली मुद्दा रहा है
जो आज हमसे खफ़ा खफ़ा है
उछाल लहरों का कह रहा है
कि चाँद का रुख खिला खिला है
लिए है जितनी विनम्रता वो
कठोरता उतनी ओढ़ता है
कभी था मरकज़ जो तज़किरों का
उन्ही से वो आज लापता है
रहे न सांप और न लाठी टूटे
यही सियासत की दक्षता है
न हो परेशान तू सुनकर इसको
तेरे सताये की ये सदा है
वो शे'र की दाद पाए 'दरवेश'
नवीन शैली में जो बंधा है